1.
सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि व: । अन्यो: अन्यमसि हर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या॥ अथर्व 3.30.1
तुम्हारे हृदय में सामनस्व हो, मन द्वेष रहित हो, एकीभाव हो. परस्पर स्नेह करो जैसे गौ अपने नवजात बछड़े से करती है.
अनुव्रत: पितु: मात्रा भवतु संमना । जाया पत्ये मधुमती वाचं वदतु शन्तिवाम् ॥ अथर्व3.30.2
पुत्र पिता की आज्ञा पालन करने वाला हो. माता के साथ समान मन वाला हो. स्त्री पति के लिए मधुर और शान्ति दायिनी वाणी बोले.
मा भ्राताभ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा । सम्यञ्च: सव्रताभूत्वा
वाचं वदत भद्रया ॥ अथर्व 3.30.3
भाई भाई से द्वेष न करे, बहिन बहिन से द्वेष न करे.सब उचित आचार विचार वाले और समान व्रतानुष्ठायी बन कर आपस मे मृदु कल्याणकारी वाणी बोलें .
4.
येन देवा न वियन्ति ना च विद्विषते मिथ: । तत् कृन्मो ब्रह्म वो गृहे
संज्ञान पुरुषेभ्य: ॥ अथर्व 3.30.4
जिस कर्म के अनुष्ठान से मनुष्य देवत्व बुद्धि सम्पन्न हो कर एक दूसरे से परस्पर मिलजुल कर रहते हैं, आपस में द्वेष नहीं करते , उन के इस कर्म से ज्ञान प्राप्त कर के एक्यमत उत्पन्न होता है.
5.
ज्यायस्वन्तश्चित्तिनो मावि यौष्ट संराधयन्त: सधुराश्चरन्त: ॥ अन्यो
अन्यस्मै वल्गु वदन्त एत सध्रीचीनान्व: संमनस्कृणोमि ॥ अथर्व 3.30.5
निज निज कर्मों के प्रति सचेत बड़ों के आदर्शों से प्रेरित अपनाअपना उत्तरदायित्व समान रूप से वहन करते हुए साथ साथ चल कर, प्रत्येक के लिए प्रिय वचन बोलते हुए एक मन से साथ साथ चलने वाले बनो.
6.
समानी प्रपा सह वोsन्नभागा समाने योक्त्रेसह वो युनज्मि । सम्यञ्चो sग्निं सपर्तारा नाभिमिवाभित: ॥ अथर्व 3.30.6
तुम्हारे जलपानके स्थान एक ही हों, तुमारा अन्न सेवन का स्थान एक हो,(No untouchables , No five star culture ). इस संसार में समान उत्तरदायित्व के वहन में तुम्हें एक जुए में जोड़ता हूं. जिस के पहियों के नाभि चक्र के अरों – लट्ठों की तरह एक जुट हो कर अग्नि से यज्ञादि शुभ कर्म करो.
7.
सध्रीचीनान्व संमनस्यकृणोम्येकश्नुष्ठीन्त्संवननेन सर्वान् । देवाइवामृतं रक्षमाणा: सायंप्रात: सौमनसौ वो अस्तु ॥ अथर्व 3.30.7
इस उपदेश को ग्रहण कर के तुम सब प्रतिदिन सायं प्रात: की तरह सदैव एक दूसरे के सहयोगी बन कर,समान मन वाले हो कर समान भोग करने हो कर मातृदेवों पितृदेवों की तरह सौमनस्य से संसार की अमरता की रक्षा करो.
ref: http://web.archive.org/web/20170729041029/http://aryamantavya.in/vaidik-samajhwad/
यस्तु सर्वानि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति ।
सर्वभूतेषु चात्मान ततो न विजुगुप्सते ॥
yastu sarvāni bhūtānyātmanyevānupaśyati |
sarvabhūteṣu cātmāna tato na vijugupsate ||
(6th Mantra, Isha Upanishad)
‘The Wise man, who realizes all beings as not distinct from his own Self, and his own Self as the Self of all beings, does not, by virtue of that perception, hate anyone.’
ref: https://www.wisdomlib.org/hinduism/book/isha-upanishad/d/doc122464.html
यस्मिन्सर्वानि भूतानन्यात्मैवभुद्विजानतः ।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥
yasminsarvāni bhūtānanyātmaivabhudvijānataḥ |
tatra ko mohaḥ kaḥ śoka ekatvamanupaśyataḥ ||
(7th Mantra, Isha Upanishad)
‘What delusion, what sorrow can there be for that wise man who realizes the unity of all existence by perceiving all beings as his own Self?’
ref: https://www.wisdomlib.org/hinduism/book/isha-upanishad/d/doc122464.html
8.
adrohaḥ sarvabhūteṣu karmaṇā manasā girā | anugrahaśca dānaṃ ca stāṃ dharma sanātanaḥ ||
The Eternal Duty (Sanātana Dharma) towards all creatures is the absence of malevolence towards them in thought, deed or word, and to practice compassion and generosity towards them. (Mahabharat Vana Parva 297,35)
9.
satyam damas tapaḥ śaucaṁ santoṣaśca kṣamārjavam | jñānaṁ śamo dayā dānaṁ eṣā dharmaḥ sanātana ||
Sanātana Dharma consists of truth, discipline, austerity, purity, contentment, forgiveness and honesty, knowledge, peacefulness, compassion and generosity. (Garuda Purana 1:213:24)
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